केरल के फोर्ट कोच्ची- मट्टनचेरी में बसता है छोटा भारत

केरल के फोर्ट कोच्ची- मट्टनचेरी में बसता है छोटा भारत

क्या आप जानते हैं कि कोच्ची में मसाला डोसा पहली बार कर्नाटक के तुलु ब्राह्मण लेकर आए और जो तला हुआ पापड़ केरल के भोजन का अटूट हिस्सा बन चुका है उसे गोवा से आए गौड सारस्वत ब्राह्मणों ने केरल के भोजन का हिस्सा बनाया

जैन मंदिर, गुजराती स्कूल, गुजराती मिठाई की दुकानें, मंदिर में गुजराती में लिखे बोर्ड और गुजराती भाषा में बात करते लोग। यह सब पढ़कर आपको यही लगेगा कि मैं गुजरात के किसी शहर में हूं। लेकिन मुझे खुद भी यह सब देखकर ताज्जुब हो रहा था कि मैं भारत के सूदूर दक्षिण में केरल के कोच्ची शहर के मट्टनचेरी इलाके में घूम रहा था। मैं पहले भी दो बार कोच्ची आ चुका था। लेकिन इस बार कोच्ची का जो हिस्सा देख रहा था उसके बारे में पहले सुना भी नहीं था। इसे दिखाने के लिए मैं अपने ट्रेवल गाइड श्यामकुमार को धन्यवाद देता हूं। 

मैं केरल ट्रेवल मार्ट के बुलावे पर केरल के टूर पर था और उस दौरान श्याम हमारे ग्रुप के ट्रेवल गाइड थे। वह टूर खत्म करके अब में अकेला कुछ दिन केरल घूम रहा था और जब मैं कोच्ची पहुंचा तो श्याम ने मुझे कहा कि मैं आपको कुछ अलग दिखाने ले चलता हूं। एक दिन श्याम अपने स्कूटर पर बैठाकर और मुझे मट्टनचेरी की गलियों में बसे छोटे से भारत को दिखाने के लिए ले गए। 

कोच्ची में बसा है गुजरात

मुझे जानकर हैरानी हुई कि मट्टनचेरी की प्रसिद्द Jew Street से कुछ ही दूरी पर एक सड़क है, जिसे गुजराती रोड कहा जाता है। सैकड़ों सालों से गुजराती परिवार यहां बसे हैं। इनके पूर्वज कभी व्यापार के लिए कोच्ची आए थे। प्राचीन समय से ही कोच्ची भारत का प्रमुख बंगरगाह रहा है, जहां दुनिया भर के लोग व्यापार करने के लिए आते थे। उसी क्रम में गुजराती भी यहां पहुंचे और बसे। कहा जाता है कि 12वीं शताब्दी में महमूद गजनवी के गुजरात पर आक्रमण के बाद ही गुजराती परिवार कोच्ची में आना शुरू हो गए थे।

गुजराती स्कूल

यहां उन्होंने केरल को अपनाया और साथ ही अपनी संस्कृति को भी बनाए रखा। गुजराती गली में उनकी समाज के द्वारा चलाए जा रहे मंदिर, स्कूल और गुजराती भवन हैं। यहां बसे गुजरातियों को गुजरात की कमी महसूस न हो इसलिए मिठाई की दुकानें हैं जो गुजराती स्वाद की मिठाइयां बेचती हैं। 

गुजराती मिठाई की लोकप्रिय दुकान- शांतिलाल मिठाईवाला
जैन मंदिर

इसी रोड़ के एक किनारे पर बना है जैन मंदिर, जिसे 1904 में बनाया गया था। शाम के समय जैन मंदिर बंद था और बाजार भी बंद होने लगा था तो अगले दिन मैं फिर से गुजरात रोड पहुंचा। कुछ लोगों से बात करने के बाद मुझे कोचीन गुजराती महाजन संस्था के सचिव नीलेश असर का फोन नंबर मिला। गुजराती महाजन गुजराती लोगों को जोड़ने वाले मंच का काम करती है।गुजराती महाजन को 1883 में शुरू किया गया था। 

नीलेश से मिलना नहीं हो पाया लेकिन उन्होंने कई जानकारियां दी। उन्होंने बताया कि फिलहाल मट्टनचेरी सहित कोच्ची के मुख्य शहर में कोई 600 से ज्यादा गुजराती और मारवाड़ी परिवार रहते हैं। राजस्थान से आने वाले व्यापारी मारवाडी समुदाय भी इन्हीं के साथ मिलकर रहता है। सैंकड़ों सालों से ये लोग यहां व्यापार कर हे हैं। शुरूआत में ये लोग कालीमिर्च, रबर और मसालों का व्यापार करते थे। आज नई पीढ़ी कंस्ट्रक्शन जैसे व्यापार में भी हाथ आजमा रही है।

कोच्ची में बसा गोवा

श्याम मुझे इसके बाद कोंकण या गोवा से आकर बसे लोगों के इलाके में लेकर गए। बातचीत में ही मुझे पता चला कि श्याम के पूर्वज भी करीब 500 साल पहले गोवा से यहां आकर बसे थे। उस समय पुर्तगाल का गोवा पर कब्जा हो चुका था और धर्म परिवर्तन से बचने के लिए गोवा के सारस्वत, गौड सारस्वत ब्राह्मण, वैश्यवणिया, सोनार, कुडुम्बी और देवदासी जैसे समुदाय समुद्री किनारे पर आगे बढ़ते हुए कोच्ची तक पहुंचे।

के एल बर्नाड की किताब ‘हिस्ट्री ऑफ फोर्ट कोचीन’ के अनुसार वर्ष 1294 में अलाउद्दीन खिलजी के सेनापति मलिक काफूर के गोवा आक्रमण के बाद से ही गोवा के लोग कोच्ची में बसना शुरू हो गए थे। उसके बाद गोवा में पुर्तगाल के शासन के दौरान यह सिलसिला बढ़ गया।

कोंकण से आए इन समुदायों के अपने-अपने मंदिर हैं और उसी मंदिर के आसपास इनके समुदाय बसता है। गोवा से आने की पांच शताब्दियां बीतने से बाद भी इन्होंने अपनी संस्कृति और भाषा को बचा रखा है। श्याम ने बताया कि वे लोग आज भी अपने घर पर कोंकणी भाषा का इस्तेमाल करते हैं। 

कोंकण से आए लोगों ने केरल में अपनी खास जगह भी बनाई। कोंकणी समाज के तीन आयुर्वेद वैद्यों रंग भट्, विनायक पंडित और आपू भट् ने डच गवर्नर हेनरिक वान रीड को 17वीं शताब्दी में मालाबार तट के पेड़-पौधों पर लिखी प्रसिद्ध किताब Hortus Malabaricus (“Garden of Malabar”) लिखने में मदद की थी। उन्हों तीनों की याद में एक स्मारक भी बनाया गया है। 

कोच्ची में मेरे पास ज़्यादा समय नहीं था और गुजरात और गोवा से आकर बसे लोगों के इलाके ही देख पाया। लेकिन फिर मैंने कुछ जानकारी जुटाना शुरू कीं और कोच्ची के इतिहास से जुड़ी किताबों को टटोला तो पता चला कि भारत के अलग-अलग इलाकों से समुदाय कोच्ची में आकर बसते रहें हैं। 

गुजरात के कच्छ से ही कच्छी मेमन मुसलमान भी व्यापार के लिए यहां आकर बसे। ये मुसलिम परिवार 1813 में यहां पहुंचे। मट्टनचेरी के बाज़ार रोड पर 1825 में बनी कच्छी हनाफी मस्जिद है जो इसी समुदाय की है। गुजरात से ही इलाके से बोहरा मुसलमान भी यहां पहुंचे। बोहरा व्यापार के लिए जाने जाते हैं। 

अफगानिस्तान से आए पठानों का भी एक इलाका मट्टनचेरी में है। इस इलाके को पट्टालम कहते हैं। 

मसाला डोसा और चपाती कैसे पहुंचे कोच्ची

इसके अलावा तमिल ब्राह्मण, कर्नाटक से तुलु और हेगड़े, आंध्र प्रदेश से चेटियार जैसे समुदाय भी यहां आकर बसे। तमिल ब्राह्मण कोचीन महाराजा के लिए काम करने लगे। आंध्र प्रदेश से आया चेटियार समुदाय तेल से कारोबार से जुड़ा। तुलु ब्राह्मण कर्नाटक के उडुपी इलाके से कोच्ची आकर बसे। दूसरे विश्व युद्ध के दौरान इन्होंने अपने रेस्टोरेंट कोचीन में शुरू किए। यहीं से कोचीन के लोगों को पहली बार ‘मसाले डोसे’ का स्वाद मिला। साथ ही ‘चपाती’ और यहां मिलने वाली जलेबी जैसी मिठाई ‘जांगरी’ भी तुलु लोग ही केरल लेकर आए।

धोबीखाने की तमिल खुशबू

फोर्ट कोच्ची के पास ही बसा है धोबीखाना। यहां तमिलनाडु से आए वन्नार जाति के लोग बसे। ये लोग पारंपरिक तौर से कपड़े धोने का काम करते थे। धोबीखाने के पास ही धोबी स्ट्रीट है जहां वन्नार रहते हैं। यहां बसे लोगों ने आप भी अपने भीतर तमिलनाडु को जिंदा रखा है। इस समुदाय के चार मंदिर भी इस इलाके में हैं, जहां ये अपने पारंपरिक त्यौहार मनाते हैं। पर्यटक इस इलाके को देखने के लिए आते हैं।

कोच्ची के अंग्लो-इंडियन 

फोर्ट कोच्ची में बड़ा अंग्लो-इंडियन समुदाय भी है। फोर्ट कोच्ची पर करीब पांच सौ साल तक पुर्तगाल, डच और आखिर में अंग्रेजों का अधिकार रहा। ऐसे में बाहर से आए पुरुषों ने केरल की स्थानीय महिलाओं के साथ परिवार बसाए। इनकी आने वाली पीढ़ियों को ही सामान्य तौर से अंग्लो-इंडियन कहा जाता है। वैसे पुर्तगाली पूर्वजों से आने वालों को लूसो-इंडियन (Luso-Indian) कहा जाता है। 

इनके नाम के साथ लगे उपनाम से पहचाना जा सकता है कि इनके पूर्वज पुर्तगाल, डच और ब्रिटिश में से किस से ताल्लुक रखते हैं। हालांकि अब इनकी आबादी कम हो रही है और ये लोग विदेश में बस रहे हैं फिर भी फोर्ट कोच्ची इलाके में इनकी बड़ी आबादी रहती है। इनके रहन-सहन, खान-पान और पहनावे में इनके पूर्वजों के साथ आई संस्कृति और केरल का मेल दिखाई  देता है।

इसके अलावा बाहर के देशों से कोच्ची आने वालों  का तो लंबा इतिहास रहा है। यहूदी 2000 सालों से यहां रहते आ रहे हैं। हालांकि अब गिनती के ही यहूदी यहां रह गए हैं। 

मैं मट्टनचेरी के इन इलाकों को पूरा तरह नहीं देख पाया। लेकिन मुझे पता है कि कोच्ची की अगली यात्रा पर मुझे क्या देखना है। आप भी अगर कोच्ची जा रहे हैं तो जानी-मानी जगहों को देखने के साथ कुछ नया तलाशने की कोशिश करें। हो सके तो गुजराती रोड या बाज़ार स्ट्रीट का एक चक्कर लगा कर आएं। आपको पता चलेगा कि भारत की लोग कैसे सदियों के एक-दूसरे के साथ मिलजुल कर रहते आ रहे हैं। 

ट्रेवल गाइड श्यामकुमार के साथ

Reference books

1- Kochiites- A look into the Intangible heritage og Kochi by Bony Thomas

2- History of Fort Kochi By K.L. Bernard

©️duniadekho.in

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