पर्यटन सुविधाओं के सुधार पर क्यों नहीं है ध्यान ?

पर्यटन सुविधाओं के सुधार पर क्यों नहीं है ध्यान ?

रात के 10.30 बजे हैं। मैं देहरादून से दिल्ली आने वाली वोल्वो बस से दिल्ली से महाराणा प्रताप आईएसबीटी पहुंचता हूं। यह वोल्वो बस उत्तराखंड रोडवेज की है यानि यह सरकारी बस सेवा है। बस का ड्राईवर बस अड्डे के बाहर फ्लाईओवर पर बस को रोक देता है। रात के समय सड़क पर भारी ट्रैफिक है। इसी ट्रैफिक के बीच मैं सड़क पर उतरता हूं। बस से उतरने के बाद सड़क पर खड़े होने भर की जगह नहीं है। पीछे से लगातार गाड़ियां आ रही हैं। सवारियों के साथ मैं किसी तरह फ्लाईओवर के फुटपाथ पर जगह बनाने की कोशिश करता हूं, ताकि भारी बैग को थाम, कुछ देर सांस ले सकूं। लेकिन फुटपाथ पर भी खड़े होने की जगह नहीं है क्योंकि उसे ऑटो ड्राइवरों और टैक्सी ड्राइवरों ने घेर रखा है।

मैं कुछ सोचूं उससे पहले ड्राइवर कहां जाना है, कहां जाना है कि रट लगाना शुरू कर देते हैं। मैं दिल्ली एनसीआर से ही हूं इसलिए उनकी बात पर ध्यान दिए बिना अपनी ऐप से टैक्सी बुक करने की कोशिश करने लगता हूं। लेकिन ड्राइवर मेरा पीछा नहीं छोड़ते , एक तो इस हद तक पीछे पड़ जाता है कि बिना ये बताए कि कहां जाना है वहां से हटने को तैयार नहीं होता। खैर किसी तरह मेरी टैक्सी बुक होती है। कुछ 5 मिनट के बाद वह टैक्सी आती है ( ऐप से टैक्सी बुक करने का अब अलग ही महाभारत है लेकिन उसकी बाद फिर कभी)। भारी ट्रैफिक वाली सड़क पर रात के 10.30 बजे कुल मिलाकर बिताए करीब 10-15 मिनट किसी परेशानी से कम नहीं थे। मैं यहीं का रहने वाला हूं, जिसे इस सब की आदत है, लेकिन सोचिए उस पर्यटक के बारे में जो किसी दूसरे राज्य या फिर किसी दूसरे देश से यहां घूमने यहां आया है। उसे क्या लगता होगा कि वह भारत की राजधानी से सबसे बेहतर कहे जाने वाले बस अड्डे के बाहर खड़ा समस्याओं से जूझ रहा है। ऐसे में घूमने का ख्याल आना तो छोड़िए , खुद को कोसने का मन करता है कि किस घड़ी में घूमने का प्लान बनाया। मौसम के ख़राब होने या देर रात पहुंचने पर होने वाली परेशानी की तो बस कल्पना ही कीजिए। इससे पहले दिल्ली से देहरादून पहुंचने पर भी मुझे ठीक यही अनुभव हुआ था, जहां बस ने बस अड्डे के बाहर अंधेरी सी जगह पर यात्रियों को उतार दिया था।

यह सिर्फ एक दिन की बात नहीं है सालों से यही होता आ रहा है। सरकारों के कानों पर जूं नहीं रेंगती। उन्हें लगता ही नहीं कि पर्यटन की सुविधाओं का आम आदमी से सीधा नाता है। दिल्ली के बस अड्डे का यह हाल तब है, जब उसे हाल के वर्षों में फिर से सजाया संवारा गया है। जब बस अड्डे को नए सिरे से संवारा गया है तो फिर यहां बस ये आने वाले यात्रियों के लिए टर्मिनल की व्यवस्था क्यों नहीं की गई है। यह यात्रियों का अधिकार है कि उन्हें लंबी यात्रा से आने के बाद कुछ देर रुकने की जगह दी जाए। लंबी यात्रा से आने वाले यात्रियों को शौचालय और खाने-पीने से जुड़ी सुविधाओं की भी ज़रूरत होती है। 

बस अड्डे पर ऐसा टर्मिनल क्यों नहीं है जहां से यात्री बिना ऑटो या टैक्सी ड्राइवरों से घिरे शांति के साथ काउंटर से अपने आगे की यात्रा के लिए टैक्सी या ऑटो बुक कर सकें या फिर कुछ देर ठहरकर अपनी आगे की यात्रा के बारे में कुछ सोच सकें, या कुछ देर आराम करके मैट्रो पकड़ने के लिए जा सकें। 

बस अड्डा, रेलवे स्टेशन या एयरपोर्ट ऐसी जगह होती है जहां बाहर से आने वाले पर्यटक को पहली बार उस जगह का अनुभव मिलता है। अगर यही अनुभव खराब होगा तो उसकी दिल्ली या भारत के बारे में क्या राय बनेगी। 

दिल्ली के इंटरनेशनल एयरपोर्ट पर हालात काफी बेहतर हैं लेकिन वहां भी जैसे ही आप हवाई अड्डे से बाहर निकलते हैं, वहां घूमते टैक्सी ड्राइवर या एजेंट आपको परेशान करने लगते हैं। एयरपोर्ट के अराइवल गेट के ठीक बाहर घूमते ये एजेंट पुलिस को नज़र क्यों नहीं आते, ये समझ में आना मुश्किल हैं, लेकिन यह बात पक्की है कि ये एजेंट दिल्ली की गलत तस्वीर दुनिया के सामने रखते हैं। इस तरह की टैक्सी लेने पर पर्यटकों के साथ हादसे होने का अपना इतिहास रहा है। लेकिन फिर भी ऐसा लगता है जैसे किसी में भी सुधार लाने की कोई इच्छा नहीं है। ऐसा केवल दिल्ली में ही नहीं है, बल्कि पर्यटकों के पसंदीदा लगभग हर शहर की यही कहानी है। 

आज हम में से कितने लोग हैं जो हमारे देश या राज्य के पर्यटन मंत्री का नाम जानते हैं? हमें शायद ही कोई ऐसा शहर दिमाग में आए जिसे हम पर्यटन के लिहाज के मॉडल के तौर पर दुनिया के सामने रख सकें (यदि कोई ऐसे किसी शहर का नाम बता सकता है तो कमेंट में ज़रूर बताए)। इस बात पर ध्यान दिया जाना चाहिए पर्यटन से जुड़ी कई सुविधाएं जैसे सुरक्षित माहौल, बेहतर सड़कें, फुटपाथ, साइकिल ट्रेक, बेहतर पब्लिक ट्रांसपोर्ट, बेहतर टॉयलेट आदि का सीधा फायदा स्थानीय आबादी को भी होता है।

हमारे देश में आने वाले विदेशी पर्यटकों का बड़ा हिस्सा गोल्डन ट्राएंगल यानि दिल्ली, जयपुर, आगरा देखने आता है। इन तीनों शहरों में से एक भी शहर ऐसा नहीं जिसे पर्यटन की सुविधाओं के लिहाज के आदर्श कहा जा सके।

कोरोना की महामारी से ठीक पहले मैं ट्रेवल से जुड़े सम्मेलन के लिए आगरा में था। आगरा की ट्रेवल इंडस्ट्री ने उसका आयोजन किया था। आख़िरी दिन मंच से पर्यटन को लेकर प्रश्न-उत्तर चल रहे थे तब मैंने उनसे यही कहा कि जब तक आगरा में आम पर्यटक के सामने आने वाली समस्याएं दूर नहीं होंगी तब तक इन सम्मेलनों से कुछ खास हासिल नहीं होगा। उन्होंने जवाब में यही कहा कि जो समस्याएं आपने बताई हैं वही हमारी भी समस्याएं हैं? यानि समस्याओं का पता सबको है, लेकिन इसे दूर कौन करेगा किसी को नहीं पता। 

जब तक सिर्फ अपनी विरासतों और धरोहरों का गुणगान चालू रहेगा और पर्यटकों के सामने आने वाली समस्याओं को दूर करने पर बात नहीं होगी तब तक पर्यटन से जुड़ी सुविधाओं में बहुत ज़्यादा सुधार की संभावना दिखाई नहीं देती। 

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