ऊपर उठती प्लास्टिक लाइन…
उत्तराखंड में कुआरी पास की चोटी पर खड़ा होकर मैं हिमालय की पवित्र नंदा देवी और द्रोणागिरी जैसी चोटियां के नज़ारे ले रहा था। प्रकृति के इन ख़बूसूरत नज़ारों के साथ अपनी तस्वीर लेने का सौभाग्य सबको नहीं मिलता। 3800 मीटर की ऊंचाई वाली चोटी पर दो दिन तक पैदल चलकर पहुंचना आसान नहीं होता। इसलिए यहां पहुंचने की खुशी दूसरी ही होती है। साथ मैं खुश था कि कुछ दिन के लिए शहर के प्रदूषण से दूर प्रकृति के बीच समय बिता रहा हूं। लेकिन जहां मैं खड़ा था, वहीं पर पत्थरों के बीच पड़ा फटा हुआ दस्ताना, टोपियां, मोजे, चॉकलेट के रैपर, जूस के ट्रेटा पैक मुझे चिढ़ा रहे हैं कि कितना भी ऊपर जाओगे, हमें हर जगह पाओगे। कुआरी पास ट्रेक के तीनों दिन रास्ते में मिलने वाला कचरा मन में खीज पैदा करता रहा।
इतने ख़बूसूरत ट्रेक से वापस आने के बाद मेरा पहला काम शायद यही होता कि इस शानदार तस्वीरों को दुनिया के साथ शेयर करूं। लेकिन इस बार मैंने पहाड़ों में बदसूरती की तस्वीर देखी और पहले इसी पर बात करना मुझे ज़रूरी लगा।
पहाड़ों पर बढ़ता प्लास्टिक कचरा कोई नई बात नहीं है दुनिया के दूसरे इलाकों की तरफ यहां भी कचरा बढ़ रहा है। लेकिन जो बात मुझे अलग दिखाई दी वह यह कि पहाड़ के वे इलाके जहां तक आदमी की पहुंच बहुत कम है, जहां ज़्यादातर चरवाहे, आसपास के गांव वाले या ट्रेकर ही पहुंचते हैं वहां भी प्लास्टिक का कचरा दिखाई देने लगा है। उत्तराखंड के जोशीमठ के पास एक गांव से हमारा ट्रेक शुरू हुआ। शुरू होते ही गांव की गलियों से आगे बढ़ते- बढ़ते प्लास्टिक की कचरा भी बढ़ता गया। प्लास्टिक की खाली बोतलें, चिप्स-बिस्कुट के पैकेट, चॉकलेट के रैपर, पान मसाले के पैकेट हर तरफ बिखरे दिखाई दे रहे थे। ये केवल यहां तक आने वाले ट्रेकर या पर्यटकों के कारण ही हो ऐसा नहीं है। अब गावों में भी प्लास्टिक पैकेजिंग वाला सामान का चलन बढ़ रहा है और उसके कारण कचरा हर तरफ नज़र आने लगा है। कुछ साल पहले तक ट्रेकिंग करते समय प्लास्टिक का इतना कचरा पहाड़ के ऊपरी इलाकों में नहीं दिखाई देता था।
यही हाल हमारी कैंपिग साइट का भी था। वहां भी काफी कचरा इधर उधर पड़ा दिखाई दे रहा था। मैं जिस ट्रेकिग एजेन्सी के साथ गया था उनका गाइडलाइन है कि वे कैंपिंग साइट पर पैदा होने वाला सारा कचरा नीचे तक वापस लेकर आते हैं। यह एक बड़ी वजह थी कि मैंने इस कंपनी को ट्रेक के लिए चुना था। लेकिन हर कंपनी ऐसा ही करती हो ज़रूरी नहीं। और साथ ही ज़रूरी नहीं कि यहां आने वाला हर ट्रेकर अपने कचरे को कूड़ेदान में डालता ही हो वैसे ही गलत आदतें इतनी आसानी से कहां छूटती हैं। उदाहरण के लिए कैंपिंग साइट पर वेट टिश्यू जैसा कचरा काफी दिखाई दिया। वेट टिश्यू को लेकर लोगों में सबसे बड़ी गलत धारणा है कि ये कागज से बना होता है वो बायोडिग्रेडबल है लेकिन उन्हें पता नहीं है कि वेट टिश्यू में प्लास्टिक मिला होता जो इसे बायोडिग्रेड नहीं होने देता।
ट्रेक के आखिर दिन हमें उत्तराखंड के प्रसिद्ध गोरसों बुग्याल से होते हुए औली पहुंचना था। गोरसों विशाल बुग्याल है। बुग्याल हिमालय की ऊंचाई पर मिलने वाले घास के मैदानों को कहते हैं। गोरसों बुग्याल का एक छोर औली के पास पड़ता है। पर्यटक टट्टुओं पर चढ़कर औली से कुछ किलोमीटर दूर इस हरे-भरे बुग्याल को देखने आते हैं। यहां प्रकृति के बीच रहने का अनुभव करने के लिए आने वाला पर्यटक अपने पीछे भरपूर गंदरी छोड़ कर जाते हैं। बुग्याल में हर तरफ हमें प्लास्टिक की खाली बोतलें, चिप्स के पैकेट, बीयर की बोतलें, ट्रेट्रा पैक और स्ट्रा ही दिखाई दे रहे थे।
हमारे ट्रेक लीड़र पवनेश ने यह देखकर वहां पड़ी बोतलों को इकट्ठा करना शुरू किया देखते ही देखते उनका बैगपैक पूरी तरफ प्लास्टिक की बोतलों से भर गया। नीचे लगाई उनकी तस्वीर से आप अंदाजा लगा सकते हैं कि कचरी किस भयावह स्तर तक यहां फैला हुआ है। मुझे यह उम्मीद अब बिल्कुल नहीं कि यहां आने वाले बेवकूफ पर्यटक कभी इस बात को समझ पाएंगे कि वे प्रकृति का कितना बड़ा नुकसान करके वापस जा रहे हैं। हमारे शहर और मैदान तो कचरे से पट चुके हैं। अब बचे हैं तो बस पहाड़ के ऊंचे इलाके लेकिन कुआरी पास से वापस आने के बाद मुझे लगता है कि कुछ ही समय की बात है कि पहाड़ की चोटियों भी प्लास्टिक से ढकी होंगी।
प्लास्टिक के कचरे को रोक पाने की कोई उम्मीद मुझे निकट भविष्य में तो दिखाई नहीं देती लेकिन इतना तो किया जाना चाहिए कि पहाड़ की अनछुई जगहों को इससे बचाया जाए। कड़े कदम उठाए बिना ऐसा होता संभव नहीं लगता। अगर हिमालय की ऊंचे इलाकों को बचाने के लिए नियमों को सख्त करने की ज़रूरत है तो वो भी किया जाना चाहिए।