
कुमाऊं के कारपेट साहब
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जिम कॉर्बेट
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“The tiger is a
large hearted gentleman with boundless courage and that when he is
exterminated-as exterminated he will be, unless public opinion rallies to his
support-India will be the poorer by having lost the finest of her fauna.” – Jim Corbett
इन पंक्तियों का मतलब है – “बाघ बेहद साहसी और बड़े दिल का सज्जन जानवर है और अगर उसे जनता का समर्थन नहीं
मिला तो वह पूरी तरह से खत्म हो जाएगा। और अपने बेहतरीन जीव के खोने के बाद भारत
और भी गरीब हो जाएगा” – जिम कॉर्बेट
पर इस बात ने तुरंत मेरा ध्यान खींचा । बार्ड पर लिखी कुछ पंक्तियां हमारे देश , हमारे पर्यावरण और बेशकीमती जानवरों को लेकर जिम कार्बेट को पूरी सोच को सामने
ला देती हैं। इसे पढ़ने के बाद एहसास होता है कि कैसे एक शिकारी से आदमखोर जानवरों
का शिकारी बनने वाला इंसान अपने बाद के जीवन में उनका रखवाला बन गया।
समय बड़ा मुद्दा नहीं था लेकिन जंगल और जानवरों को लेकर गहरी समझ रखने वाली पारखी नजरों ने आने
वाले खतरे को भांप लिया था।
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जिम कॉर्बेट का घर
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में बना संग्राहलय माकूल जगह है। स्थानीय लोगों में वे कारपेट साहब के नाम से ही मशहूर थे।
को सहेजा गया है। तस्वीरों से आप को उनके जीवन के बारे में बहुत कुछ जानने और
समझने को मिलता है।
जानते हैं। पर यहां आकर मुझे पता चला कि नैनीताल इलाके के सफल व्यापारी के तौर
पर उन्होंने काफी पैसा भी कमाया। लेकिन जंगल से प्यार इतना गहरा था कि पहचान एक
प्रकृतिप्रेमी के तौर पर ही बनी।
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कॉर्बेट अपनी बहन मैगी के साथ
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दिखाई गई हैं। उनके समय की मेज़, कुर्सी, उनका पलंग ,पालकी जैसी चीजें यहां रखी गई हैं।एक बार को तो ऐसा लगता है कि जैसे आप फिर से
कारपेट साहब के समय में ही लौट गये हैं और यहीं कहीं से वे आकर आप से बात करने
लगेंगे।
लेकिन कालाढूंगी में उनका दूसरा ही रुप
नजर आता है। यहां वे गांव वालों की मदद करने वाले इंसान के तौर पर पहचाने जाते थे ।
उन्होंने लोगों को खेती के लिए जमीनें दीं। इलाके में केले की खेती की शुरुआत भी कारपेट
साहब ने ही की। उन्हें दवाईयों की जानकारी भी थी, किताबों में जिक्र मिलता है कि
उनकी लाल दवाई पीते ही गांव वालों का सर्दी जुकाम , बुखार छू मंतर हो जाया करता था।
तो ऐसे कारपेट साहब को तो लोग याद करेंगे ही।
शिकारी के तौर पर बनी। इसी वजह से पूरे कुमाऊं और गढवाल में उनका बेहद सम्मान किया
जाता है।कालाढूंगी के पास छोटा
हल्द्वानी गांव भी उन्होंने ही बसाया ।
इसका पता मुझे इंटरनेट पर उनके बारे में कुछ तलाश करते समय मिला। साल 1986 में
बीबीसी की टीम उन पर एक डाक्यूमेंटरी बनाने कालाढूंगी और नैनीताल आई। इसी
कालीढूंगी के घर में उसकी शूंटिंग हुई। उस समय तक कारपेट साहब भारत से गए 40 साल
हो चुके थे। लेकिन लोगों को दिलों में उनकी याद इतनी ताजा थी कि बीबीसी की टीम के
सम्मान में कुमाऊं के दूर दराज के गावों से लोग कालाढूंगी आए और उन्होंने कुमाऊंगी
नाच और गानों के साथ टीम का स्वागत किया। उस समय तक तो कारपेट साहब के साथ काम कर
चुके बहुत से स्थानीय लोग भी जिंदा थे।
लोगों के इसी प्यार और सम्मान को आज भी महसूस किया जा सकता है। मुझे यहां आने वाले
लोगों में पर्यटक ही नहीं बल्कि आस-पास के
लोग भी बड़ी संख्या में दिखाई दिए।
मानते थे कि कोई जानवर आदमखोर नहीं होता बल्कि परिस्थितियों के कारण वह आदमखोर बन
जाता है।
प्रस्तावना में लिखा है –
“A man-eating tiger is a
tiger that has been compelled, through stress of circumstances beyond its
control, to adopt a diet alien to it. The stress of circumstances is, in nine
cases out of 10, wounds, and, in the 10th case, old age. “Human beings are not the
natural prey of tigers, and it is only when tigers have been incapacitated
through wounds or old age that, in order to survive, they are compelled to take
to a diet of human flesh.”
यानि “ बाघ को परिस्थितियां
आदमखोर बनने के लिए मजबूर करती हैं, 10 में से 9 मामलो में बाघ के घाव इसका कारण
थे, और दसवें मामले में बाघ का बुढ़ापा इसकी वजह बना।”
“आदमी बाघों का प्राकृतिक आहार नहीं है, बुढापे, घाव या किसी
वजह से जिंदा रहने की लड़ाई में ही बाघ आदमी को खाना शरु करता है। ”
खरीदा था और जानवरों के चित्र लेने में उनका बहुत मजा आता था। उन्होनें लिखा है कि
रायफल से शूंटिग की बजाए कैमरे से शूट करना उनको कहीं ज्यादा पसंद था।
आकर बहुत कुछ जानने को मिला । लेकिन कारपेट साहब को जानने का सफर अभी पूरा
नहीं हुआ था उसमें एक आश्चर्य और बाकी था।
चुनी गई थी उसमें कालाढूंगी से कुछ किलोमीटर दूरी पर पवलगढ़ में बना का वन विभाग
का रेस्ट हाउस भी शामिल था। वन विभाग के रेस्ट हाउस आमतौर पर जंगल के अंदर बहुत शांत इलाके में
होते हैं इसलिए मुझे लगा कि दोपहर के खाने के लिए इस जगह को चुना गया होगा। लेकिन
यहां पहुंचे तो पता चला कि इस रेस्ट हाउस का इतिहास भी कारपेट साहब से जुड़ा है।
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पवलगढ़ रेस्ट हाउस
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स्टाइल में बनाया गया था। 1930 में इस
रेस्ट हाउस में कारपेट साहब भी रुक चुके थे। यहीं रहते हुए उन्होने रेस्ट हाउस के
ठीक बगल में सेमल के पेड़ के नीचे अपने समय के सबसे मशहूर बाघ “बैचलर ऑफ पवलगढ़”को मारा था। वह
पेड़ आज भी मौजूद है।
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इसी पेड़ के नीचे मारा था
बाघ |
मैन इटर्स ऑफ कुमाऊं में वे लिखते है कि गांव वाले बताते हैं कि उन्होंने इससे बड़ा
बाघ पहले कभी देखा ही नहीं था।
फिर भी कार्बेट ने उसे क्यों मारा इसकी जानकारी मुझे कहीं नहीं मिली। लेकिन
स्थानीय लोगों में एक बात प्रसिद्ध है कि बाघ को मारने के बाद उसकी लाश के
पोस्टमार्टम के दौरान कार्बेट को पता चला कि बाघ आदमखोर नहीं था। उस घटना का उन पर
इतना गहरा उसर हुआ कि इस घटना के बाद वे और भी जोर शोर से जानवरों को बचाने के काम
में जुट गए।
हेली नेशनल पार्क के नाम से देश का पहला संरक्षित पार्क बना। आजादी के बाद कार्बेट
के प्रति सम्मान जताते हुए भारत सरकार ने 1952 में उसका नाम बदल कर जिम कार्बेट
नेशनल पार्क कर दिया।
में बाघ बचाने के लिए जब काम शुरु किया गया। तो कार्बेट नेशनल पार्क में ही देश का
पहला बाघ अभ्यारण्य भी बनाया गया।
वाले कारपेट साहब के लिए इससे बड़ी श्रंद्धांजलि कुछ और हो भी नहीं सकती थी।
नहीं आएं। एक दिन उस इंसान के बारे में जानने की भी कोशिश करें जिसनें पूरी दुनिया
में बाघ संरक्षण के प्रयासों को एक दिशा दी।
One thought on “कुमाऊं के कारपेट साहब”
Very well written. Not many go here. I think everyone who comes to Jim Corbett national park must visit here.