छोटे ल्हासा मैक्लोडगंज धर्मशाला की सैर (१)
कश्मीर से घूम कर आये लगभग दो महीने होने वाले थे। मेरा मन फिर कही जाने के लिए मचलने लगा था । तभी अगस्त में दो तीन दिन की छुट्टी भी मिल गई। अब तो मैं आस पास जगह तलाश करनें लगा जहां घूमने जाया जा सके। काफी दिनो से मेरा मन हिमाचल जाने का कर रहा था तो मैने धर्मशाला जाना तय किया। एक दोस्त भी चलने को तैयार हो गया।
हिमाचल पर्यटन के दिल्ली आफिस में फोन कर सारी जानकारी ले ली। हम दोनो तेरह की शाम को धर्मशाला के लिए निकल पडे। लेकिन मेरे दोस्त सुभाष को अपने आफिस से निकलने में देर हो गई। शाम को सात के बाद ही हम निकल पाये।
मैं पहले पता कर चुका थी कि आठ बजे वोल्वो बस चलती है लेकिन देर से निकलने के कारण हम उस में नहीं जा पाये। बस अड्डे पर पता चला कि अब तो हिमाचल की साधारण बस सेवा में ही जाना होगा। लगभग तेरह घंटे की यात्रा थी लेकिन जाना तो था ही इसलिए बैठ गये ।
करीब नौ बजे हमारी बस चल पडी। दिल्ली से निकलते ही मौसम नें रंग बदलना शुरु कर दिया और तेज बरसात होने लगी। रात को करीब दो बजे हम लोग चंडीगढ पहुंच गये। चंडीगढ के बाद तो मुझे नींद आने लगी था जब आंख खुली तो पता चली कि हम हिमाचल में उना से आगे निकल चुके हैं। थोडी ही देर में पहाड भी शुरु हो गये। हांलाकि बरसात को रुक चुकी थी लेकिन पहाड अभी भी भीगे हुए थे।
बस से हरी भरी वादियों को देखना आखो को चैन दे रहा था। मन में खुशी हो रही थी कि एक बार फिर में दिल्ली की दौड भाग से दूर आ गया हूँ। रास्ते में नौ देवियों में से एक चिन्तपूर्णी देवी का मन्दिर भी पडा।
आखिर कार करीब सुबह के दस बजे हमारी बस धर्मशाला पहूँच ही गई। लेकिन हमारी मंजिल ये नहीं थी ब्लकि हमें तो बहां से दस किलोमीटर दूर मैक्लोडगंज जाना था । जहां दलाई लामा रहा करते हैं।
दरअसल धर्मशाला के दो हिस्से हैं एक है निचला धर्मशाला जो करीब तेरह सौ मीटर की उँचाई पर है और दूसरा है ऊपरी धर्मशाला जो करीब अठारह सौ मी़टर की ऊँचाई पर है। ऊपरी धर्मशाला में साठ के दशक में तिब्बत से निर्वासित तिब्बती लोग रहे है जो कि दलाई लामा के साथ भारत आ गये थे। ज्यादातर पर्यटक ऊपरी धर्मशाला में ही जाते हैं क्योकि वहां अलग तरह कि बौद्द संस्कृति देखन को मिलती है। इसी ऊपरी धर्मशाला को मैक्लोडगंज कहा जाता है।
तो हमे धर्मशाला के बस अड्डे से ही मैक्लोडगंज के लिए बस मिल गई। रास्ता बेहद ही खूबसूरत था पूरा इलाका ही देबदार और चीड के जंगलों से भरा पडा है। आधे ही घंटे में हम मैक्लोडगंज आ गये। हल्की हल्की बरसात भी होने लगी थी कुल मिलाकर पहाड पर मस्ती करन का पूरा माहौल था वहा पर।
सबसे पहले तो हमने होटल लेने की सोची। दिल्ली से ही हिमाचल पर्यटन के होटल भागसू के बारे में पता कर लिया था । इसलिए बस से उतरते ही होटल के लिए चल पडे को बस अ़ड्डे से पास ही था। होटल पहाड के एक किनारे पर देवदार के जंगल के बीच बना था इतनी शानदार जगह थी कि होटल के एरिया में घुसते ही मन खुश हो गया।
हमें एक कमरा भी वहां मिल ही गया एक ही खाली था। कमरा लेकर हम थोडी ही देर मे तैयार हो गये धर्मशाला को छानने के लिए। लेकिन तब तक इतनी तेज बरसात होने लगी कि बाहर निकलना मुश्किल हो गया । तो क्या करते बालकनी मे बैठकर ही निहारने लगा। खैर दो बजे तक बरसात हल्की होने लगी तो हम बाहर निकले।
होटल से पता किर लिया था कि आस पास क्या है देखने के लिए । बाहर आकर फिर से हम बस अड्डे पर आये ये यहा का मुख्य इलाका है जहां से घूमने के लिए टैक्सी या ओटो लिया जा सकता है। ये बहुत ही छोटी जगह है और पैदल भी घूमा जा सकता है। लेकिन बरसात के कारण हमने एक ओटो कर लिया । पहली बार किसी हिल स्टेशन पर मैं ओटो देख रहा था इसलिए ओटो ही कर लिया घूमने के लिए।
उस गांव से उँचे पहाडों का सुन्दर नजारा देखने को मिलता है इसलिए पर्यटन विभाग गांव को विकसित कर रहा है। वाकई यहां से सामने के ऊंचे पहाडो का बढिया नजारा हमें देखन को मिला। हल्की बरसात में हम पास के जंगल की सैर पर निकल गये ।
थोडी देर तक नजारे लेकर हम चले अगली मंजिल डल लेक की तरफ ये एक छोटी सी झील है । झील छोटी जरुर है लेकिन चारो तरफ से देवदार के जंगल से घिरी है । झील के चारों तरफ घूमने के लिए रास्ता बनाया गया है। झील में आस पास के कई झरनो का पानी मिलता है। हल्की बरसात औऱ झील का किनारा माहौल को रोमांटिक बना रहा था।
झील को देखने के बाद हम चले सेंट जान चर्च को देखने के लिए। इस चर्च को अठारह सौ बावन में बनाया गया था। ये उत्तर भारत के सबसे पुराने चर्च में से एक हैं । छोटा सा चर्च बाकई देखने के लायक है । घने जंगल से घिरा है चर्च का पूरा इलाका।
चर्च बंद होने के कारण हम इसके अंदर नहीं जा सके लेकिन चर्च की खिडकियो में स्टेंड ग्लास की सुन्दर काम किया गया है। इसे देखन के लिए आप को रविवार को जाना होगा क्योकि रविवार को पूजा के लिए चर्च खुलता है।
चर्च में एक पुराना कब्रिस्तान भी है जिसकी खासियत ये है कि यहां भारत के वायसराय लार्ड एल्गिन को दफनाया गया है जिनकी अठारह सो तिरेसठ में घोडे से गिरकर मौत हो गई थी। ये चर्च धर्मशाला और मैक्लोडगंज के रास्ते के बीच में है।
अब हम चले भागसू नाग मन्दिर देखने के लिए जो कस्बे से एक किलोमीटर की दूरी पर है। भगवान शिव के इस मन्दिर की बहुत मान्यता है। मन्दिर के पास की झरना निकलता है जिसे पवित्र माना जाता है। मन्दिर से सामने की घाटी का सुन्दर नजारा देखने को मिलता है।
12 thoughts on “छोटे ल्हासा मैक्लोडगंज धर्मशाला की सैर (१)”
बेहतरीन लिखा है आपने……..
सन्दर चित्र दिखाए आपने धन्यवाद
बहुत अच्छा लिखा है आपके साथ ही हमने भी छोटे ल्हासा मैक्लोडगंज धर्मशाला की सैर कर ली ।
bshut hi sundar
दिपान्शु, बहुत विस्तार से लिखा सुन्दर यात्रा विवरण है, फोटो भी शानदार हैं।
तो मुसाफिर घूम ही आए। पॉंच साल पहले वहाँ विपश्यना शिविर में 10 दिन की साधना के लिए गया था, इसलिए आसपास कुछ भी घूम नहीं पाया था। मेरे मन में वहॉं न घूम पाने की जो टीस थी, आपको पढ़कर वो आज दूर हो गई। तहे दिल से शुक्रिया।
और हॉं, मैक्लॉडगंज में शिविर मे शामिल होने का अनुभव दो-तीन कड़ी में लिख रहा हूँ। देखिएगा।
रोचक जानकारी!!बढ़िया यात्रा वृतांत..आभार.
भईया मजा़ आया, बढिया लिखा है। हा अब मौक्लोडगंज नहीं जाऊंगा.. या हो सकता है ज़रूर जाऊं. नहीं समझे? इतना बढिया सीन तो आपने दिखा ही दिया है जाने की ज़रूरत क्या है। दीपांशु भाई और दूसरा खयाल ये कि अब तो ऐसी खूबसूरत जगह जितनी जल्दी हो चला ही चलें।
sir
तब और आज मे अंतर आगया.कैसर के मरीज आते है होटल वाले लूट लेते है.जब कि डां.येशी की दवा सस्ती है.मै स्वंय मुक्तभोगी हूं.
तब और आज मे अंतर आगया.कैसर के मरीज आते है होटल वाले लूट लेते है.जब कि डां.येशी की दवा सस्ती है.मै स्वंय मुक्तभोगी हूं.
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