काबुल के बाज़ार में एक दिन…
‘हिन्दुस्तानी या पाकिस्तानी’ काबुल की मशहूर चिकन स्ट्रीट बाज़ार की एक दुकान में घुसने के बाद दुकानदार ने मुझसे पूछा। मैं इस बाजार की एक कीमती पत्थरों की दुकान में यूं ही कुछ देखने चला गया था। लापीस लाजुली और दूसरे कीमती पत्थरों से सजी वह दुकान मुझे खूबसूरत लगी। लेकिन दुकान में घुसने के बाद इस सवाल ने मुझे चौंका दिया था।
जैसे ही मैंने कहा ‘हिन्दुस्तानी’ तो उम्रदराज से दिखाई देते दुकानदार के चेहरे पर मुस्कान आ गई। उन्होंने प्यार से मुझे पत्थरों के बारे में बताना शुरू किया। मैंने काफी देर तक उनसे कीमतों पत्थरों के बारे में पूछता रहा। लापीस लाजुली या लाजवर्द मैंने इससे पहले नहीं देखा था। हां उसके बारे में पढ़ा काफी था। लाजवर्द के अलावा अफगानिस्तान में पन्ना भी निकाला जाता है।
सिंधु घाटी सभ्यता के शहरों की खुदाई से लाजवर्द या लापीस लाजुली पत्थर और उससे बनी चीजें मिली हैं। सिंधु घाटी सभ्यता के लोग इन कीमती पत्थरों का व्यापार मध्य-एशिया के देशों के साथ करते थे। उस समय भी यह पत्थर अफगानिस्तान से ही जाया करता था। अफगानिस्तान में भी सिंधु सभ्यता के प्रमाण मिले हैं।
दुकानदार का नाम था अकबर सामांदरी जो बरसों से यही दुकान चला रहे थे। बोले भारत से हमारा रिश्ता बहुत गहरा है। आप तो हमारे भाई जैसे हैं। मैंने पूछा कि ‘हिन्दुस्तानी या पाकिस्तानी’ क्यों पूछा आपने । तो उन्होंने कहा कि देखने में दोनों ही देशों के लोग एक जैसे लगते हैं। लेकिन हम लोग पाकिस्तान को पसंद नहीं करते। अफगानिस्तान की बरबादी का बहुत बड़ा कारण पाकिस्तान ही है। लेकिन भारत तो हमारा दोस्त है। इतनी बातों के बाद उन्होंने चाय पिए बिना आने ही नहीं दिया। अफगान मेहमाननवाज़ी से यह मेरा पहला परिचय था । जिसे सात दिन काबुल तक में ठहरने के दौरान मैंने कई बार महसूस किया। अकबर साहव के साथ एक फोटो ली और कभी दुबारा मिलने की दुआ करके आगे निकला।
चिकन स्ट्रीट काबुल का प्रसिद्ध बाजार है। जो अपने कीमती पत्थरों, कालीनों और हस्तशिल्प की दुकानों के लिए जाना जाता है। यहां अफगानी केसर से लेकर तरह तरह के फल और अफगानी मेवे कुछ भी खरीदे जा सकते हैं। इस स्ट्रीट पर खाने की कई जगहें हैं जहां दुनिया भर का खाना खाया जा सकता है। लोग बताते हैं कि किसी समय यहां बहुत रौनक हुआ करती थी। तालिबानों के हटने के बाद वह रौनक कुछ हद तक वापस भी आई। चिकन स्ट्रीट में पुराने अफगानिस्तान की महक अभी भी बरकरार है। इसे देखकर महसूस होता है कि 60-70 के दशक में जब काबुल को पूर्व का पेरिस कहा जाता था तो असल मे क्या माहौल होता होगा। कहते हैं उस समय दुनिया का हर नया फैशन काबुल में दिखाई देता था।
मैं बाज़ार में कुछ आगे बढ़ा तो एक दुकान दिखाई दी जिसके बाहर रोटियां सजी थी। वह दुकान अलग सी दिखाई दी तो मैं उसके अंदर गया। अंदर कई लोग काम कर रहे थे। कुछ लोग आटा लगा रहे थे तो कुछ रोटियां बना रहे थे। हाथ में कैमरा लिए किसी अनजान को दुकान में घुसते देख सब रुक गए और मेरी तरफ देखने लगे। मैंने एक ऊंचे से काउन्टर पर बैठे लड़के से पूछा कि फोटो ले सकता हूँ। उसने मेरी तरफ देखा और फिर वही सवाल पूछा जो पिछली दुकान पर पूछा गया था ‘हिन्दुस्तानी या पाकिस्तानी’।
जवाब में हिन्दुस्तानी सुनने के बाद उसके चेहरे पर भी मुस्कान तैर गई और मुझे फोटो की इज़ाजत मिल गई। फिर तो सबने मुस्काराते चेहरे के साथ फोटो खिंचवाई। काम पूरा होने के बाद जब मैं निकलने लगा को फिर से वही चाय की पेशकश। पहली दुकान में चाय पी चुका था तो उनको प्यार से मना किया। चाय ना सही रोटी ही सही। मैं भी नानवाई की दुकान में बनी अफगानी नान का स्वाद लेना चाहता था। दुकानदार ने मेरे हाथ में नान पकड़ा ही। मैंने पैसे देने चाहे तो मना कर दिया लेकिन फिर में मैंने 10 या 20 अफगानी उसके हाथ में दे दिए।
अफगानिस्तान में रोटी बनाने की दुकानों को नानवाई कहा जाता है। इन दुकानों में बड़े बडे तंदूरों पर नान और दूसरी तरह ही रोटियां बनाई जाती हैं। यहां घरों में रोटियां नहीं बनाई जाती। लोग जरूरत के हिसाब से रोटियां बाज़ार से ही खरीद कर ले जाते हैं। इन रोटियों को घर पर बने गोश्त या दूसरी चीजों के साथ खाया जाता है।
मेरे टैक्सी ड्राईवर ने कहा कि आपको मॉल भी दिखा लाता हूँ। काबुल में मॉल भी है, मैं चौंक गया। ड्राईवर के दूसरे बाज़ार में एक बड़ी सी इमारत के बाहर ले गया। बाहर से कंक्रीट की मोटी दीवारों के सिवाय कुछ नहीं दिखाई दे रहा था। ड्राईवर ने बताया कि शुरू में यह खुला दरवाजा होता था लेकिन मॉल पर एक बार आतंकी हमला हुआ जिसके बाद से कंक्रीट की दीवारें खडी की गई हैं।
मैं अंदर की तरफ बढ़ा तो संकरा सा गलियारा था बाहर टेढ़े मेढ़े गलियारे को इस तरह बनाया गया कि एक बार में एक ही आदमी जा सके। वहां Ak47 लेकर खड़े गार्ड ने तलाशी ली । उसके बाद अंधेर गलियारे से निकल कर मैं सीधा एक मॉल के मुख्य हाल में पहुचां। मुझे देखकर भरोसा नहीं हुआ कि काबुल के एक मॉल भी है। मॉल किसी भी बेहतरीन मॉल को टक्कर दे रहा था। रोशनी से जगमगाती साफ सुथरी दुकाने, रेस्टोरेंट, शानदार कॉफी शॉप। सब कुछ वैसा ही जैसा मॉल के नाम से ध्यान आता है। समझ में आया कि धीरे ही सही काबुल में बदलाव आ रहा है। कॉफी शॉप में लड़के और लड़कियां आराम से बैठे बातें कर रहे थे। महिलाएं खरीदारी कर रही थी। यूरोपिय स्टाइल के कपड़ों से लेकर कीमतों सामनों और हीरे जवाहरातों तक हर तरह की दुकानें थी।एक दो दुकानदारों से वहां भी बात करने का मौका मिला।
एक हिन्दुस्तानी के लिए अफगान लोगों के दिल में इतना प्यार होगा इसका मुझे अंदाजा नहीं था। शायद यह सदियों का रिश्ता है जो आज भी कायम है। मैं काबुल के बाज़ार में बहुत सी दुकानों पर गया और शायद ही कोई जगह हो जहां उन्होंने प्यार से स्वागत ना किया हो। और हां अफगानिस्तान में कहीं भी जाएं आपका स्वागत चाय से जरूर होगा। अफगानिस्तान में चाय एक परंपरा है।
नोट– यह यात्रा मैंने मई 2011 में की थी।
2 thoughts on “काबुल के बाज़ार में एक दिन…”
दीपांशु मेरे हिसाब से अफ़ग़ान यात्रा पर तुम्हरा लेख विस्तार से होना चाहिए।बहुत कम लोग जानते है अफ़ग़ान और भारत के रिश्तों और व्यापार को लेकर बस हम ये जानते है कि वहां से ड्राई फ्रूट्स भारत आते है। अफगान पर लिखने के लिए तुम्हारे पास काफी कुछ होगा।
What you’re saying is completely true. I know that everybody must say the same thing, but I just think that you put it in a way that everyone can understand. I’m sure you’ll reach so many people with what you’ve got to say.