अमृतसर का सारागढ़ी गुरुद्वारा – सिक्ख वीरता की अमिट निशानी

अमृतसर का सारागढ़ी गुरुद्वारा – सिक्ख वीरता की अमिट निशानी

सारागढ़ी गुरुद्वारा , अंमृतसर

सारागढ़ी गुरुद्वारा अमृतसर के टाउन हाल और स्वर्णमंदिर के पास ही बना है। गुरुद्वारा इतना छोटा है कि शायद इस पर आपकी नजर ही नहीं पड़ेगी। लेकिन इस छोटे से गुरुद्वारे से सिक्ख वीरता की अमिट कहानी जुड़ी है । यह कहानी है सारागढ़ी की लड़ाई और उसमें सिक्ख सैनिकों की बहादुरी की। खास बात यह है कि इस गुरुद्वारे को सन् 1902 में खुद अंग्रेजों ने अपने 21 बहादुर सिक्ख सैनिकों की याद में बनवाया था । इन सैनिकों ने सारागढ़ी पोस्ट को बचाने के लिए अपनी जान कुर्बान कर दी थी।

क्या थी सारागढ़ी की लड़ाई

सारागढी की लड़ाई 12 सितम्बर 1897 को 36वीं सिक्ख रेजीमेंट के 21 सिपाहियों और 10000 अफगान कबाइलियों के बीच लड़ी गई थी। सारागढ़ी एक उस समय के भारत के नार्थ वेस्ट फ़्रंटियर प्रांत ( वर्तमान में पाकिस्तान) में अग्रेजो की एक सैनिक पोस्ट थी । अफगानिस्तान से लगने वाले इलाकों पर कब्जा बनाए रखने के लिए अंग्रेज सेना यहां तैनात की गई थी। इस इलाके में कब्जे को लेकर अफगानों और अंग्रेजों के बीच लगातार लड़ाईयां होती रहती थी।

इसी दौरान 12 सितम्बर 1897 के दिन अफ़रीदी और औरकज़ई कबीले के 10,000 से 12,000 अफगानों ने सारागढ़ी पोस्ट पर हमला किया । सारागढ़ी पोस्ट आसपास के किलों के बीच सिगनल देने का काम करती थी । सारागढ़ी किले को दो किलों लॉकहर्ट और गुलिस्तान के बीच में एक पहाड़ी पर बनाया गया था । सारागढ़ी की सुरक्षा के लिए हवलदार ईशर सिंह के साथ 20 सिपाहियों को दस्ता तैनात था। अफगानों का घेरा ऐसा था कि पास के किलों से मदद भी नहीं भेजी जा सकती थी।

कहा जाता है कि अफगानों के हमले के बाद इन सिपाहियों से पोस्ट खाली करके पीछे हटने के लिए भी कहा गया था, लेकिन इन सिपाहियों ने सिक्ख परम्परा को अपनाते हुए मरते दम तक दुश्मन से लड़ने का फैसला किया। ईशर सिंह और उनके सिपाहियों ने बहादुरी से हमले का सामना किया। 21 सिपाही पूरे दिन हजारों की संख्या में आए अफगानो से लड़ते रहे। गोली बारूद से खत्म होने पर उन्होनें हाथों और संगीनों से आमने सामने की लडाई लडी। आखिरकार अफगानों ने सारागढ़ी पर कब्जा तो किया लेकिन इस लडाई में अफगानों को बहुत जान का बहुत नुकसान उठाना पड़ा। इस लड़ाई के कारण मदद के लिए आ रही अंग्रेजी फौज को समय मिल गया और अगले दिन आए अंग्रेजों के दस्ते ने अफगानों को हरा कर फिर से सारागढ़ी पर कब्जा कर लिया। अंग्रेजों के फिर से कब्जे के बाद सिक्ख सैनिकों की बहादुरी दुनिया के सामने आई। अंग्रेज सैनिकों को वहां 600 से 1400 के बीच अफगानों की लाशें मिली।

सारागढ़ी पर बचे आखिरी सिपाही गुरमुख सिंह ने सिगनल टावर के अंदर से लडते हुए 20 अफगानों को मार गिराया। जब अफगान गुरमुख पर काबू नहीं पा सके तो उन्होंने टावर में आग लगा दी और गुरमुख जिंदा ही जल कर शहीद हो गए।

सिक्ख सैनिकों को इस बहादुरी की चर्चा ब्रिटिश संसद में भी हुई । यहां शहीद हुए सभी 21 बहादुर सिक्ख सैनिकों को उस समय भारतीय सैनिकों को मिलने वाले सबसे बड़े वीरता पुरुस्कार इंडियन आर्डर ऑफ मैरिट से सम्मानित किया गया। बाद में इसी लड़ाई के स्मारक के रुप में अंग्रजों ने अमृतसर, फिरोजपुर और वजीरस्तान में तीन गुरुद्वारे बनवाए।इस लड़ाई की याद में आज भी 12 सितम्बर को सारागढी दिवस मनाया जाता है। यूनिस्को ने सारागढ़ी की लडाई की गिनती दुनिया में आजतक सबसे वीरतापूर्ण तरीके से लड़ी गई 8 लड़ाईयों में की है। जब भी अमृतसर आएं तो सिक्ख वीरता के इस स्मारक को देखना ना भूलें।

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