बर्फीले रेगिस्तान सियाचिन का सफर (२)
खारदूँगला में हमें दोपहर के दो बज चुके थे और सियाचिन बैस कैम्प के लिए हमें लम्बा रास्ता तय करना था । इसलिए तेजी से हम आगे बढे। खारदूँगला से कुछ दूरी पर ही नोर्थ पुलु में सेना का कैम्प था जहा हमे दोपहर के खाने के लिए रुकना था। यहां हमारे लिए खाने का बेहतरीन इतंजाम सेना ने किया था। ये कैम्प समुद्र तल से सोलह हजार मीटर की ऊँचाई पर है। सियाचिन जाने वाले सैनिको को भी ऊंचाई की आदत डालने के लिए कुछ दिनो तक यहां रखा जाता है।
यहां से आगे शुरु होती है नुब्रा घाटी। ये घाटी खारदूंगला से लेकर सियाचिन बैस कैम्प तक फैली हुइ है। सियाचिन ग्लेशियर से निकलने वाली नुब्रा नदी के नाम पर ही इस घाटी का नाम रखा गया है। नुब्रा के साथ ही इस घाटी मे श्योक नदी भी बहती है। लगभग पूरे ही रास्ते सडक के एक और नदी का साथ लगातार बना ही रहता है।
घाटी में दूर दूर फैले छोटे छोटे गांव नजर आते हैं। दस बीस घर या उससे भी कम घरों के छोटे गांव । घरो की खासियत ये कि इनके चारों और ही खेत बने होते हैं जिनमें जरुरत के लायक अनाज उगाया जाता है। गायों की तरह खेतों में याक चरते नजर आते हैं। याक वहां के लोगों के लिए कामधेनू कि तरह से हैं जिससे का हर सामान इस्तेमाल किया जाता है । उसके दूध से लेकर मांस और उन तक।
यहां बुद्ध धर्म का साफ प्रभाव नजर आता है हर जगह पूजा के लिए धर्म चक्र लगे होते हैं। गांव के लोग बडे ही भोले भाले नजर आते हैं।
नुब्रा घाटी लेह से कुछ अलग लगती है लेह में जहां हरियाली दिखाई नहीं देती वही यहां पर नदी के किनारे पर पेड और झाडियां दिखाई देते हैं। ये पेड यहां के सूनेपन मे जिंदगी का अहसास सा भरते नजर आते है।
लद्दाख का स्थानिय फल सी-बक-थोर्न भी इस घाटी में दिखाई देता है। इसे लेह बेरी के नाम से भी जानते है। ये एक कांटेदार झाडी पर लगने वाला फल है। जो स्वाद में थोडी खट्टा होता है । लेकिन हैल्थ के लिए इसका जूस अच्छा माना जाता है। आजकल लेह बैरी के नाम से इसका जूस बाजार में मिल भी रहा है। लोगों नें इसके बागान भी लगाये हैजिससे इलाके के लोगो को रोजगार भी मिल रहा है।
इस इलाका के मजा लेते हुए हम रात को करीब नौ बजे सियाचिन बैस कैम्प पहुचे । यहां बर्फबारी ने हमारा स्वागत किया। ठंड भी बहुत ज्यादा थी। इसलिए खाना खा कर सभी लोग सोने के लिए चले गये।
घाटी में दूर दूर फैले छोटे छोटे गांव नजर आते हैं। दस बीस घर या उससे भी कम घरों के छोटे गांव । घरो की खासियत ये कि इनके चारों और ही खेत बने होते हैं जिनमें जरुरत के लायक अनाज उगाया जाता है। गायों की तरह खेतों में याक चरते नजर आते हैं। याक वहां के लोगों के लिए कामधेनू कि तरह से हैं जिससे का हर सामान इस्तेमाल किया जाता है । उसके दूध से लेकर मांस और उन तक।
यहां बुद्ध धर्म का साफ प्रभाव नजर आता है हर जगह पूजा के लिए धर्म चक्र लगे होते हैं। गांव के लोग बडे ही भोले भाले नजर आते हैं।
नुब्रा घाटी लेह से कुछ अलग लगती है लेह में जहां हरियाली दिखाई नहीं देती वही यहां पर नदी के किनारे पर पेड और झाडियां दिखाई देते हैं। ये पेड यहां के सूनेपन मे जिंदगी का अहसास सा भरते नजर आते है।
लद्दाख का स्थानिय फल सी-बक-थोर्न भी इस घाटी में दिखाई देता है। इसे लेह बेरी के नाम से भी जानते है। ये एक कांटेदार झाडी पर लगने वाला फल है। जो स्वाद में थोडी खट्टा होता है । लेकिन हैल्थ के लिए इसका जूस अच्छा माना जाता है। आजकल लेह बैरी के नाम से इसका जूस बाजार में मिल भी रहा है। लोगों नें इसके बागान भी लगाये हैजिससे इलाके के लोगो को रोजगार भी मिल रहा है।
इस इलाका के मजा लेते हुए हम रात को करीब नौ बजे सियाचिन बैस कैम्प पहुचे । यहां बर्फबारी ने हमारा स्वागत किया। ठंड भी बहुत ज्यादा थी। इसलिए खाना खा कर सभी लोग सोने के लिए चले गये।
यहां पहली बार हमे स्लीपिंग बैग में सोना पडा क्योकि वहां कि भंयकर ठंड का भगाने का और कोई जरिया नही है। कमरो को गर्म रखन के लिए यहां केरोसिन तेल से जलने वाले रुम हीटर का इस्तेमाल किया जाता है जिसे बुखारी कहते हैं। लेकिन रात को बुखारी को बंद कर दिया जाता है।
बैस कैम्प में हमे सेना के माउंटनियरिंग संस्थान में ठहराया गया था । अगले दिन सुबह से ही हमे अगले चार दिनों तक हमें यहीं पर ग्लेशियर पर चढने की ट्रेनिग लेनी थी।
पहला दिन शुरु हो गया। हमें दिखाया गया कि क्या क्या ले कर जाना है। पहनने के लिए विशेष जैकेट ( आस्ट्रिया के बने) ,थर्मल इनर वियर( ये ऐसा समान था जो डीआरडीओ ने बनाया था अच्छा लगा कि कुछ देश में भी बना है।) , स्लिपिंग बैग, बर्फ में पहनने के जूते ( इटली के बने), धूप का चश्मा( अमेरिकी नजर से सियाचिन देखना था)। इसके अलावा आईस एक्स, रस्सियां, और रुकसैक ।
देख कर लगा कि इतना सामान कैसे लेकर जायेगें क्योकि खूद ही ये सब लेकर चढाई करनी थी।
8 thoughts on “बर्फीले रेगिस्तान सियाचिन का सफर (२)”
सजीव चित्रण के लिए लख-लख बधाईयां
सुन्दर और सजीव यात्रा का आंख़ो देख़ा हाल पढ कर आणंद आ गया। आपसे थोडी जलन भी हो रही है,तक़दीर वाले हो दोस्त जो घूमने मिल रहा हैअम भी घूमते है लेकिन कोल्हू के बैल की तरह्।मज़ा आ गया अगली कडी का इंतज़ार रहेगा।
कभी फ़िर जाना हो तो नुब्रा के रेगिस्तान को भी देखे जो हुंदर में पूरी मस्ती करता हुआ दिखायी देगा। बर्फ़ीले विस्तार में रेत का साम्राज्य !
अगली कड़ी का इन्तजार रहेगा बहुत रोचक है यह
bahut kuch north sikkim jaisa drishya dikh raha hai jahan hum 17000 ft tak gaye the. Par jahan aap ja rahein hai wo jagah to aur bhi thandi rahi hogi.
Apka blog dekh ke achha laga…
badhiya.. mast.. kya baat hai. i lived in AIR building located above Baroo village in Kargil during war time.
बहुत रोचक है…& great pictures as well…