पर्यटन और फ़िल्मों के बीच है अटूट रिश्ता….
स्विटज़रलैंड के इंटेरलकेन शहर में भारत के मशहूर फ़िल्म निर्माता और निर्देशक यश चोपड़ा की मूर्ति लगी है। इसमें उन्हें फ़िल्म कैमरे के साथ खड़ा दिखाया गया है। सभी जानते हैं कि यश चोपड़ा को स्विटज़रलैंड से विशेष लगाव था। उनकी फ़िल्मों ने यहां के पहाड़ों, हरी-भरी वादियों और बर्फीली चोटियों की ख़ूबसूरती को भारत के घर-घर तक पहुंचाया। स्विटज़रलैंड सरकार ने उनके इसी योगदान की याद में मूर्ति स्थापित की है। वर्ष 2011 में उन्हें ‘अंबेसडर ऑफ इंटेरलकेन’ की मानद उपाधि से सम्मानित किया था। साथ ही जुंगफ्राउ रेलवे ने एक ट्रेन का नाम का उनके नाम पर रखा। ये सम्मान दर्शाते हैं कि फ़िल्में केवल मनोरंजन का ही ज़रिया नहीं हैं बल्कि उनका प्रभाव समाज के व्यापक हिस्सों पर पड़ता है। उन हिस्सों में पर्यटन भी शामिल है।
फ़िल्मों में दिखाई जाने वाली जगहें लोगों की पसंदीदा बन जाती है। फिल्मों के डायलॉग मशहूर होते हैं, उनके गाने मशहूर होते हैं और साथ ही मशहूर हो जाती है वे जगहें जहां इन फिल्मों की शूटिंग की जाती है। दुनिया भर में बहुत सी जगहें हैं जिन्हें फिल्मों में दिखाए जाने के बाद वहां पर्यटकों की आवक कई गुना बढ़ गई।
किसी जमाने में कश्मीर फ़िल्म शूटिंग के लिए निर्माताओं की पहली पसंद हुआ करता था। बड़े पैमाने पर फिल्मों की शूटिंग कश्मीर में की जाती थी। इससे बड़ी संख्या में रोजगार के मौके भी पैदा होते थे साथ ही पर्यटन भी बढ़ता था। सन्नी देओल और अनिता सिंह अभिनीत फिल्म बेताब की शूटिंग कश्मीर के पहलगाम में हुई थी। जहां शूटिंग हुई उस ख़ूबसूरत घाटी का नाम ही बेताब वैली पड़ गया। आज पहलगाम जाने वाले पर्यटक बेताब वैली देखने ज़रूर जाते हैं।
कश्मीर घाटी में पर्यटकों की पसंदीदा जगहों में गुलमर्ग भी शामिल है। यहां ऋषि कपूर और डिंपल कपाड़िया पर बॉबी फ़िल्म के लोकप्रिय गाने ‘हम तुम एक कमरे में बंद हो’ को फ़िल्माया गया था। गुलमर्ग के एक होटल के कमरे को इसके लिए चुना गया था। अब होटल ने उस कमरे का नाम बॉबी सुईट रख दिया है। अभिनेता शाहरूख खान भी एक बार गुलमर्ग जाने पर उसी सुईट में रुके थे। गुलमर्ग जाने पर गाइड आपको बॉबी हट के बारे में ज़रूर बताते हैं।
पर्यटन और फ़िल्मों के संबंध की बात हो तो हालिया हिन्दी फिल्मों में 3 इडियट्स की बात की जा सकती है। फिल्म के आख़िरी हिस्से में दिखाई गई नीले पानी की ख़ूबसूरत विशाल झील ने लोगों को आश्चर्य में डाल दिया। बहुत से लोगों को फ़िल्म आने के बाद पता चला कि इतनी ख़ूबसूरत झील भारत में ही है। लद्दाख में पड़ने वाली पैंगोंग झील भारत और चीन की सीमा बनाती है। इस विशाल झील का एक तिहाई हिस्सा भारत में पड़ता है। दिसम्बर 2009 में फ़िल्म रिलीज़ होने के बाद लद्दाख आने वाले पर्यटकों की तादात तेज़ी बढ़ी। झील के किनारे ढेरों ढाबे बन गए जिन्होंने अपना नाम फ़िल्म के नाम पर ही रख लिया। झील के पास के इलाकों में कई कैपिंग साइट बन गई हैं। कई गांवों में होमस्टे शुरू हो गए। पर्यटन से आए इस असर को ख़ुद मैंने भी अनुभव किया। मैं पहली बार 2008 में लद्दाख गया। उस वक़्त भी भारतीय पर्यटक लद्दाख जाते थे लेकिन संख्या ज्यादा नहीं थी। जहां तक मुझे याद है तब दिल्ली से लेह के लिए केवल 3 हवाई उड़ानें थीं। मैं दूसरी बार 2011 में लद्दाख गया। फ़िल्म आने के डेढ़ साल के भीतर ही तस्वीर बदल चुकी थी। लद्दाख में पर्यटकों की संख्या में कई गुना का इजाफा हो चुका था। वहां जाने वाली हवाई उड़ानों की संख्या बढ़ गई थी।
हिन्दू बिजनेस लाइन की रिपोर्ट के मुताबिक फिल्म रिलीज़ होने के साल भर में लद्दाख जाने वाले पर्यटकों की संख्या 77,800 हो गई, जो वर्ष 2011 में 1,79,491 पर पहुंच गई। इसके बाद यह आंकड़ा लगातार बढ़ता ही रहा और वर्ष 2018 में पर्यटकों की संख्या बढ़कर 3,27,366 हो गई। इसके पीछे 3 इडियट्स फ़िल्म भी एक बड़ी वजह है। आज लद्दाख जाने वाले हर पर्यटक की लिस्ट में पैंगोग झील सबसे ऊपर होती है।
पर्यटन बढ़ने से स्थानीय लोगों के लिए रोज़गार के नए साधन पैदा होते हैं और इलाके का विकास होता है। लेकिन कई बार इससे ज़रूरत से ज़्यादा पर्यटन का ख़तरा भी पैदा हो जाता है । जैसे लद्दाख जैसा पर्यावरण के लिहाज के संवेदनशील इलाका आजकल पर्यटकों का ज़रूरत से ज़्यादा दबाव झेल रहा है। लद्दाख में बढ़ते पर्यटन से प्रदूषण और कचरे की समस्या बढ़ रही है। पैंगोग झील के आस पास पर्यटकों की बढ़ी संख्या से पैदा हो रहे कचरे का निपटान बड़ी समस्या बन गई है। किसी जगह को फिल्मों से मिलने वाली लोकप्रियता और ज़रूरत से ज़्यादा पर्यटन के बीच संतुलन बैठाना भी ज़रूरी है।
आज दुनिया भर के देश चाहते हैं कि बॉलीवुड फिल्म निर्माता उनके यहां आकर फिल्म की शूटिंग करें। मैं ख़ुद भी कई देशों के पर्यटन मंत्रालयों के अधिकारियों से मिला हूं और भारतीय फिल्म निर्माताओं को बुलाना सबकी सूची में शामिल होता है। भारतीय फिल्म उद्योग में बॉलीवुड के साथ ही तमिल, कन्नड, मलयालम और तेलगू, बंगला, गुजराती, मराठी, भोजपुरी आदि दूसरी भाषाओं की फ़िल्म इंडस्ट्री भी शामिल हैं। दक्षिण भारतीय फिल्में तो अपने बजट के मामले में बॉलीवुड से होड़ लेती हैं और बड़ी संख्या में उनकी शूटिंग भी विदेशी लोकेशन पर की जाती है।
पर्यटन पर हिन्दी फिल्मों के प्रभाव का एक और उदाहरण लें तो हम फिल्म ‘ज़िंदगी ना मिलेगी दोबारा’ को ले सकते हैं। इस फ़िल्म की शूटिंग स्पेन के विभिन्न इलाकों में की गई। इसमें तीन दोस्तों की कहानी है जो काफ़ी दिनों बाद मिलते हैं और घूमने के लिए एक साथ स्पेन जाते हैं। फ़िल्म 2011 में रिलीज़ हुई थी। द गार्डियन डॉट कॉम की रिपोर्ट के मुताबिक उस साल क़रीब 30,000 भारतीय पर्यटक स्पेन गए थे जबकि अगले साल यह संख्या दोगुनी होकर 60,444 पर पहुंच गई। साल 2013 में स्पेन जाने वाले भारतीय पर्यटकों की संख्या बढ़कर 85000 हो गई। अब ट्रैवल एजेन्सियां भारतीय पर्यटकों के लिए स्पेन का ऐसा टूर तैयार करती हैं जिसमें फिल्म में दिखाई जगहों को शामिल किया जाता है।
फ़िल्मों का हमारे समाज से गहरा नाता है। फ़िल्में जितना हमारे समाज से प्रभावित होती हैं उतना ही वे समाज पर असर भी डालती हैं। फ़िल्मों के यह असर पर्यटन पर भी साफ़ नज़र आता है। भारत जैसे विशाल देश में ऐसी अनगिनत जगहें हैं जिनके बारे में आम लोगों को जानकारी नहीं है। फ़िल्मों के ज़रिए ऐसी जगहों को सबके सामने लाया जा सकता है।
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