छोटा कैलाश- ट्रैकिंग का रोमांच-५
तीन जून- चढाई का तीसरा दिन- बुद्धि से गुंजी
तीसरे दिन हमे बुद्धि से गुंजी तक का सत्रह किलोमीटर का सफर करना था। ये रास्ता पिछले दिनो के मुकाबले आसान था। रोज की तरह से ही हमारा दिन सुबह चार बजे ही शुरु हो गया सुबह की चाय के साथ। उसके बाद जल्दी से तैयार होकर साढे पांच बजे तक हम चल पडे अपने सफर पर। बुद्धि से पांच किलोमीटर आगे छियालेख घाटी पडती थी। जहां तक जाने का पहले दो किलोमीटर का रास्ता तो आसान और ह्लकी चढाई वाला था। लेकिन उसके बाद के तीन किलोमीटर का बेहद कठिन और लगभग सीधी चढाई वाला रास्ता था। इस तीन किलोमीटर तक हमें सीधे उपर ही चढते जाना था।
चढाई इतनी मुश्किल भरी थी कि हर कदम के साथ दम फूलने लगता था। एक तो हम पहले ही काफी ऊंचाई पर आ चुके थे एसे मै इतनी कठिन चढाई करना आसान काम नही था। थोडी थोडी दूर पर रुक कर आराम करते हुए धीरे धीरे आगे बढ रहे थे।
रास्ते का अंदाजा आप इस बाद से लगा सकते है कि कुछ जगहो पर तो घोडे से भी लोगो को उतरना पड रहा था। खैर सुबह आठ बजे चढाई पूरी कर हम लोग छियालेख पहुंच गये। छियालेख मे घुसने से पहले बडा ही संकरा रास्ता था, लग रहा था जैसे किसी घर का दरवाजा हो। हमे तो अभी तक पता नही था कि इस रास्ते के पार क्या छिपा है। जैसे ही हम छियालेख पहुंचे मेरा तो दिमाग ही चकरा गया। ऐसा लगा कि जैसे दूसरी ही दुनिया मे पहुंच गये हैं।
स्वर्ग मे पहुंचने का अभास दे रही थी छियालेख घाटी। घाटी मे हरे घास की मखमली चादर बिछी हुई थी। चारो तरफ तरह तरह के रंग बिरंगे फूल खिले हुए थे। खुशबू ऐसी की जो जाये मदहोश हो जाए। पता चला की इसको फूलो की घाटी भी कहा जाता है। हमारे साथ चल रहे घोडे वालो ने बताया कि अभी तो बहुत कम फूल दिखाई दे रहे है अगस्त के महीने मे अगर आये तो यहा हर तरफ बस रंग बिरगे फूल हि दिखाई देते हैं। मै तो यहा आकर जैसे खो ही गया। मेरा मन तो यहा से आगे जाने का भी नही कर रहा था। यही पर हमारे नाश्ते का इंतजाम भी था। नाश्ता करने के बाद मै तो निकल गया घाटी की सैर पर। घाटी के और अंदर जाने पर तो जो नजारे मुझे दिखाई दिये उनके बारे मे तो मै बयान ही नही कर सकता। आप लोग फोटो देखकर खुद ही अंदाजा लगा सकते है।
घाटी के चारो और फैले बर्फ के पहाड इसको अलग ही रुप दे रहे थे। यहा हमने दो घंटे से भी ज्यादा का समय बिताया। ये समय कैसे बीत गया पता ही नही चला। लेकिन आज ही हमे गुंजी पहुंचना था इसलिए आगे तो जाना ही था……..
छियालेख के बाद रास्ता सीधी और उतराई वाला ही था। इसलिए चलने मे दिक्कत नही हो रही थी। पूरा ही रास्ता घास के मैदानो से भरा पडा था जगह जगह से निकल रहे झरने इसे और भी खूबसूरत बना रहे थे।
छियालेख से चार किलोमीटर चलने के बाद हम छोटे से गांव गर्बयांग मे पहुचे। इस गांव मे बने लकडी के मकान और खास तौर पर इनके नक्काशी दार दरवाजे देखने के लायक थे। इस गांव को धसकने वाले गांव के तौर पर भी जाना जाता है। ये पूरा गांव ही पहाड के जिस हिस्से पर है वो धीरे धीरे खिसक रहा है। इसके कारण यहा के गांव वालों को उत्तराखंड के तराई ईलाके में जमीने दी गई है।
गर्बयांक से निकलते ही भारतीय तिब्बत सीमा पुलिस की जांच चौकी बनी है जहां पर हमारे कागजात का जांच की गई। धारचुला से चले आज तीसरा दिन था और तीन दिन से घर पर मेरी कोई बात नही हुई थी। मोबाईल फोन तो कभी के बंद हो चुके थे। अभी तक किसी भी कैंप मे सैटेलाईट फोन भी हमे नही मिला था। क्याकि छोटा कैलाश का हमारा पहला ही दल था और कैलाश यात्रा का दल आने मे कुछ दिन बाकी थे इसलिए गाला औऱ बुद्धि दोनो कैंपो मे अभी तक फोन नही लगे थे ।
गर्बयांग से पांच किलोमीटर दूर सीधी गांव मे दोपहर का खाना खाकर हम गुजी के लिए चल पडे। शाम को करीब चार बजे हम आखिरकार गुजी पहुच गये। गुजी तक के रास्ते काली नदी लगातार साथ बनी रहती है। गुजी मे कुमाऊं पर्यटन का थोडी बडा कैप है क्योकि ऊपर के कैपो के लिए खाने पीने का सामान यही से आगे भेजा जाता है।
गुंजी समुद्र सतह से बत्तीस सौ मीटर से भी ज्यादा की ऊंचाई पर बसा है। इस कारण यहा ठंड बहुत ज्यादा थी। साथ ही गुजी की स्थिति कुछ इस तरह की है कि यहा बहुत ही तेज हवाये चलती है। कभी कभी तो इतनी तेज की बात करना भी मुश्किल हो जाता है। अगले दिन हमे चीन सीमा पर ऊं पर्वत के लिए सफर करना था।……… एक बात और गुजी मे भी अभी तक सैटेलाईट फोन नहीं लगा था।
3 thoughts on “छोटा कैलाश- ट्रैकिंग का रोमांच-५”
रोचक विवरण चल रहा है.सुन्दर तस्वीरें, आनन्द आ गया.
मस्त एकदम मस्त
भाई जी, कहाँ हो इतने दिन से, ठीक तो हो ना,