गुनेहड़ – कला दीर्घा में बदलता गांव
गुनेहड़ की एक सुबह मुझे मेरे होटल की बालकनी से कुछ
महिलाएं आती दिखाई दी। खूबसूरत रंग बिंरंगे कपड़ों में सजी, काफी कुछ राजस्थानी
पहनावे जैसा। वे महिलाएं नीचे की तरफ बने खेतों में चली गई। एक घंटे बाद जब वे फिर
से आती दिखाई दी तो मेरी साथी ब्लागर श्री और मंजुलिका ने उनके फोटो लेने की इजाजत
मांगी। वे आराम से तैयार हो गई, बोली, ले लो जी, जितने फाटो लेने हैं। अभिनव और
मैं भी अपना कैमरा लेकर पहुंचे।
महिलाएं आती दिखाई दी। खूबसूरत रंग बिंरंगे कपड़ों में सजी, काफी कुछ राजस्थानी
पहनावे जैसा। वे महिलाएं नीचे की तरफ बने खेतों में चली गई। एक घंटे बाद जब वे फिर
से आती दिखाई दी तो मेरी साथी ब्लागर श्री और मंजुलिका ने उनके फोटो लेने की इजाजत
मांगी। वे आराम से तैयार हो गई, बोली, ले लो जी, जितने फाटो लेने हैं। अभिनव और
मैं भी अपना कैमरा लेकर पहुंचे।
उन महिलाओं ने हमें अपने घर आने का न्यौता दिया और
साथ में प्यार से हमें उलाहना भी कि आप पहले बताते तो हम अच्छे तैयार होकर आते पूरे गद्दी पहनावे और श्रंगार के
साथ। आज कि दुनिया में इतना प्यार और अपनापन वो भी चार अनजान लोगों से कोई गांव
वाला ही दिखा सकता है।
इस पर हममें से
किसी ने कहा कि हम फिर आएंगे फ्रेंक वाले
मेले में, उस समय आप के घर भी चलेंगे। ‘फ्रेंक वाला मेला’ सुनते ही उनकी आंखों में
चमक आ गई, बोली कि उस समय तो हम भी तैयार होकर आएंगें, आप जरुर आना।
‘फ्रेंक वाला मेला’ यह शब्द सुनकर जो चमक उन गद्दी महिलाओं के चहरे
पर दिखाई दी,यही वह जुड़ाव है जो इस मेले को शुरु करने वाले फ्रेंक चाहते भी थे। मेला
गांव वालों के साथ जुड़े, उनको साथ लेकर चले।
पर दिखाई दी,यही वह जुड़ाव है जो इस मेले को शुरु करने वाले फ्रेंक चाहते भी थे। मेला
गांव वालों के साथ जुड़े, उनको साथ लेकर चले।
फ्रेंक वाला मेला
दरअसल एक कला उत्सव ( आर्ट फेस्टिवल) है जिसे फ्रेंक हिमाचल की कांगड़ा घाटी के छोटे
से गांव गुनेहड़ में करवाते हैं। देश-विदेश के कलाकार उसमें जुड़ते हैं, अपनी कला
दिखाते हैं। फ्रेंक चाहते तो इस कला उत्सव को भी दूसरे शहरों में होने वाले आर्ट
फेस्टिवल की तरह बुद्धिजीवियों का अड्डा बना सकते थे । जहां देश दुनिया के लोग
जुटते तो जरुर हैं लेकिन आस-पास के परिवेश या लोगों से उनका जुडाव कम ही हो पाता
है।
दरअसल एक कला उत्सव ( आर्ट फेस्टिवल) है जिसे फ्रेंक हिमाचल की कांगड़ा घाटी के छोटे
से गांव गुनेहड़ में करवाते हैं। देश-विदेश के कलाकार उसमें जुड़ते हैं, अपनी कला
दिखाते हैं। फ्रेंक चाहते तो इस कला उत्सव को भी दूसरे शहरों में होने वाले आर्ट
फेस्टिवल की तरह बुद्धिजीवियों का अड्डा बना सकते थे । जहां देश दुनिया के लोग
जुटते तो जरुर हैं लेकिन आस-पास के परिवेश या लोगों से उनका जुडाव कम ही हो पाता
है।
यहीं पर आकर फ्रेंक का मेला सबसे अलग और ख़ास हो जाता है।
इस आर्ट फेस्टिवल में कलाकार आते तो दुनिया भर से हैं लेकिन वे स्थानीय लोगों के
साथ मिलकर अपनी कला को दिखाते हैं। फैशन डिजाइनर स्थानीय गद्दी पहनावे को मिलाकर
कपड़े तैयार कर रहा है, उसके बाद गद्दी महिलाओं का पारम्परिक कपड़ों में फैशन शो
होता है।
फोटोग्राफर गांव के लोगों की जिंदगी को अपने कैमरे में उतार रहे हैं।
फिल्म बनाने वाले गांव के बच्चों को अभिनय करवा कर उनके साथ फिल्म बना रहे हैं।
पूरा गुनेहड़ गांव जैसे एक बड़ी सी कला दीर्घा में बदल जाता है। कोई एक जगह नहीं
गांव का चौराहे, नुक्कड़, गली मोहल्ले हर जगह कला की कोई अभिव्यक्ति चलती रहती है।
इस आर्ट फेस्टिवल में कलाकार आते तो दुनिया भर से हैं लेकिन वे स्थानीय लोगों के
साथ मिलकर अपनी कला को दिखाते हैं। फैशन डिजाइनर स्थानीय गद्दी पहनावे को मिलाकर
कपड़े तैयार कर रहा है, उसके बाद गद्दी महिलाओं का पारम्परिक कपड़ों में फैशन शो
होता है।
फोटोग्राफर गांव के लोगों की जिंदगी को अपने कैमरे में उतार रहे हैं।
फिल्म बनाने वाले गांव के बच्चों को अभिनय करवा कर उनके साथ फिल्म बना रहे हैं।
पूरा गुनेहड़ गांव जैसे एक बड़ी सी कला दीर्घा में बदल जाता है। कोई एक जगह नहीं
गांव का चौराहे, नुक्कड़, गली मोहल्ले हर जगह कला की कोई अभिव्यक्ति चलती रहती है।
ये दुकानें बनती हैं फेस्टिवल का हिस्सा |
पिछले आर्ट फेस्टिवल की कलाकारी
|
कुछ रंग अभी भी ताज़ा हैं
|
कोई कलाकार लोगों के साथ मिलकर गांव की दुकानों और खाली
पड़ी दिवारों को अपनी कूंची से नए रंग दे रहा होता है। तो कोई दरवाजों को सजाने
में व्यस्त है। और इन सब में गांव के लोगों का हिस्सा लेना वाकई अनोखी बात है।
पड़ी दिवारों को अपनी कूंची से नए रंग दे रहा होता है। तो कोई दरवाजों को सजाने
में व्यस्त है। और इन सब में गांव के लोगों का हिस्सा लेना वाकई अनोखी बात है।
फ्रेंक बताते हैं कि 2013 में हुए पहले उत्सव में शुरु में
तो गांव के लोगों थोड़ा दूर-दूर रहे लेकिन कुछ ही दिन में सब ऐसे घुल मिल गए कि
लगता नहीं कि बाहर से आए कलाकार वहां काम कर रहें हैं।
तो गांव के लोगों थोड़ा दूर-दूर रहे लेकिन कुछ ही दिन में सब ऐसे घुल मिल गए कि
लगता नहीं कि बाहर से आए कलाकार वहां काम कर रहें हैं।
इस उत्सव को फ्रेंक ने नाम दिया है शॉपआर्टआर्टशॉप
( ShopartartShop) । नाम इसलिए पड़ा कि गांव
में खाली पड़ी दुकानों को एक महीने के लिए बाहर से आए कलाकारों को दे दिया जाता
है। इन दुकानों में कलाकार अपनी कला का प्रदर्शन करते हैं। गांव से इनका जुड़ाव
इतना ज्यादा है कि पहले शॉपआर्टआर्टशॉप में तो गांव वालों में खुद ही अपनी दुकाने
फ्रेंक को दे दी वो भी बिना कोई पैसा लिए।
( ShopartartShop) । नाम इसलिए पड़ा कि गांव
में खाली पड़ी दुकानों को एक महीने के लिए बाहर से आए कलाकारों को दे दिया जाता
है। इन दुकानों में कलाकार अपनी कला का प्रदर्शन करते हैं। गांव से इनका जुड़ाव
इतना ज्यादा है कि पहले शॉपआर्टआर्टशॉप में तो गांव वालों में खुद ही अपनी दुकाने
फ्रेंक को दे दी वो भी बिना कोई पैसा लिए।
2013 में हुए पहले उत्सव के समय आस-पास के गांवों के 5000
लोगों मेला देखने आए। अब तीन साल के बाद 14 मई से 14 जून तक यह दूसरा शॉपआर्टआर्टशॉप
कला उत्सव होने जा रहा है। फ्रेंक को उम्मीद है कि इस बार इससे भी ज्यादा लोग मेले
को देखने आएंगे।
लोगों मेला देखने आए। अब तीन साल के बाद 14 मई से 14 जून तक यह दूसरा शॉपआर्टआर्टशॉप
कला उत्सव होने जा रहा है। फ्रेंक को उम्मीद है कि इस बार इससे भी ज्यादा लोग मेले
को देखने आएंगे।
इन्होंने पिछले मेले में फिल्म बनाई थी
|
कला के कुछ नमूने
|
आप भी चाहें को इस शॉपआर्टआर्टशॉप ( ShopartartShop) कला उत्सव की मदद कर सकते
हैं।
हैं।
मदद के लिए इस लिंक पर क्लिक कर सकते हैं।
हां, मेला देखने के लिए सबका स्वागत है। गुनेहड़ हिमाचल में
पैराग्लाइडिंग के लिए प्रसिद्ध जगह बिर-बिलिंग के बिल्कुल पास ही है, इसलिए यहां
रुकने और खाने पीने की जगहों की कमी नहीं है।
पैराग्लाइडिंग के लिए प्रसिद्ध जगह बिर-बिलिंग के बिल्कुल पास ही है, इसलिए यहां
रुकने और खाने पीने की जगहों की कमी नहीं है।
कैसे पहुंचें-
रेल- बड़ी लाइन का सबसे नजदीकी स्टेशन पठानकोट है। गुनेहड़
से पठानकोट करीब 150 किलोमीटर दूर है। पठानकोट से टैक्सी और हिमाचल परिवहन की बस
उपलब्ध हैं। टैक्सी करीब 3,000 हजार रुपये में मिल जाएगी।
से पठानकोट करीब 150 किलोमीटर दूर है। पठानकोट से टैक्सी और हिमाचल परिवहन की बस
उपलब्ध हैं। टैक्सी करीब 3,000 हजार रुपये में मिल जाएगी।
बस- दिल्ली, चंड़ीगढ़ जैसे शहरों से यहां के लिए सीधी बस
सेवा है। वोल्वो से लेकर साधारण बस तक जैसा आप चाहें। बस आपको गुनेहड़ से कुछ पहले
बिर में उतारगी।
दिल्ली से बस का किराया बस की सुविधा के हिसाब से करीब 600 रुपये से लेकर 1200 रुपये तक है।
सेवा है। वोल्वो से लेकर साधारण बस तक जैसा आप चाहें। बस आपको गुनेहड़ से कुछ पहले
बिर में उतारगी।
दिल्ली से बस का किराया बस की सुविधा के हिसाब से करीब 600 रुपये से लेकर 1200 रुपये तक है।
हवाई जहाज- कागंडा में हवाई उड्डा है जहां दिल्ली से नियमित
उड़ान आती है।
उड़ान आती है।
10 thoughts on “गुनेहड़ – कला दीर्घा में बदलता गांव”
Very well written article. You brought about the very soul of Gunehr. I am sure I will not forget this trip in a lifetime. Hoping to go here again in June with you all. What Frank is doing to this village is commendable and must be supported in whatever capacity we can. We need more events like Shop Art / Art Shop.
Thank you so much Abhinav..
Thank you so much Abhinav Singh
Very nice bhai shahab
M aap kaa junior adrash vidiya mandir bissau kaa aap ko yaad h yaa nahi malum nahi good job keep it up dear
God bless u
Thank tou Ajay..naam se yaad nahi aa reha ..chehra dekh ker yaad aa jaye ga..
Very nice bhai shahab
M aap kaa junior adrash vidiya mandir bissau kaa aap ko yaad h yaa nahi malum nahi good job keep it up dear
God bless u
Dipanshu, thank you! I am most proud of this Hindi article!
Thank you so much Frank..
enjoyed your post !
Soulful write-up. It brought back lovely memories from our trip. I totally loved the intro.
Great wishes to Frank ka Mela.