छोटा कैलाश- ट्रैंकिग का रोमांच- 7

छोटा कैलाश- ट्रैंकिग का रोमांच- 7

चढाई का छटा दिन

पांचवे
दिन हम लोग ऊँ पर्वत को देखकर वापस गुंजी के लिए चल दिये ।  शाम होते होते
हम गुंजी पहुंच गये। रास्ते में कई जगह पर भुस्खलन के चलते रास्ते को बदल
कर सीधी खडी चढाई भरे रास्तों से चढना उतरना पडा। खैर गुंजी पहुंच कर आराम
आया। गुंजी इस इलाके का एक बडा कैंप है। कुमाऊं विकास निगम के इस कैंप में
सुविधायें दूसरे कैंपों से बेहतर हैं। हां एक बात बताना जरुरी है कि यहां
लगे सैटेलाईट फोन ने अभी भी काम करना शुरु नहीं किया था। दो दिन से घर बात
नहीं हुई थी। आगे कितने दिन तक नहीं होगी ये भी पता नहीं था क्योंकि अगर
गुंजी में फोन काम नहीं कर रहा था तो छोटा कैलाश की चढाई के रास्ते में फोन
मिलने की तो बिल्कुल उम्मीद नही थी। लेकिन अब कुछ कर भी नही सकते थे।

योजना
के हिसाब से तो हमें छटे दिन गुंजी में आराम करना था । लेकिन हमारे दल के
सभी लोग अब ट्रेकिंग के मुख्य पडाव छोटे-कैलाश पुहंचने के लिए उतावले थे।
इसलिए सबने आराम ना करके आगे बढने का फैसला किया। तय किया गया कि अगले पडाव
कुट्टी तक पहुंचा जाये, फिर वहां जा कर ही सोचा जायेगा कि एक दिन आराम
करना है या नहीं। मेरा मन यही था कि गुंजी की जगह कुट्टी में ही आराम किया
जाये। गुंजी मे तो पहले ही हम दो रात रुक चुके थे और कुट्टी में रुकना अपने
आप में अलग अनुभव होता । कुट्टी बहुत पुराने समय से तिब्बत से होने वाले
व्यापार का केन्द्र रहा था । एक ऐतिहासिक गांव था कुट्टी। छटे दिन हम सब
लोग सुबह छह बजते बजते कुट्टी के लिए निकल गये। पहाड पर ट्रेकिंग कर रहे हो
तो सुबह जितना जल्दी ट्रेक शुरु कर दिया जाये बेहतर होता है क्योंकि सुबह
की ठंडक में चढाई करना आसान होता है। दिन चढने पर धूप तेज हो जाती है जिससे
आपकी रफ्तार कम पड जाती है। DSCN1004नाबि गांव
गुजीं से कुट्टी 19 किलोमीटर दूर है।    गुंजी से निकलते ही सबसे पहले हमने नाबि गांव को पार किया। छोटा सा
खूबसूरत पहाडी गांव। कुछ देर इस गांव मे रुककर पुराने घरों के कुछ फोटो
लिए, उसके बाद हम आगे बढे। रास्ता बेहद खूबसूरत था लेकिन कहीं कहीं खतरनाक
भी।
रास्ते की खूबसूरती
Copy of DSCN1010

 

रास्ते
के एक तरफ नदी बह रही थी और दुसरी तरफ उंचे पहाड। दोपहर में रास्ते के एक
छोटे से ढाबे पर खाना खाया। ढाबा के नाम से ये मत सोचिये कि दिल्ली –
चंडीगढ के रास्ते जैसा कोई ढाबा होगा। यहां ढाबे का मतलब है एक छोटी सी
खाने की जगह जहां  आते जाते गांव वाले खाना खा सके। खाना भी गिनती के लोगों
के लिए ही बनाया जाता है। गुंजी से कुट्टी के बीच बस एक यही खाने की जगह
थी। इन ढाबे वालों को अनूमन पता होता है कि कितने लोग आज आ सकते हैं उस
हिसाब से ही खाना बनता है। खैर हमारे लिए पहले ही कुमाऊं मंडल की तरफ से
बताया जा चुका था इसलिए हमारे लिए पूरा इंतजाम था।
रास्ते का ढाबा

 

खाना
खा कर कुछ आराम करके हम आगे बढे। जैसे जैसे उंचाई बढ रही थी रास्ते के पेड
पौधे बदलते जा रहे था।  सामने के पहाडों पर अब पेडो के नाम पर बस भोजपत्र
के ही पेड नजर आ रहे थे। रास्ते में भी बस भोजपत्र के ही जंगल थे। इतनी
उंचाई पर यहां भोजपत्र के अलावा बस कुछ घास ही उगती है। ये भोजपत्र वही है
जिस पर पुराने जमाने में लिखा जाता था। कागज की जगह इस्तेमाल होना वाला
भोजपत्र हजारों साल पहले इन्ही पहाडों से नीचे ले जाया जाता होगा जहां ऋषि
मुनी उन पर ग्रंथो की रचना करते होगें।

अब धीरे धीरे शाम होने लगी
थी और हम कुट्टी की तरफ बढ रहे थे तभी कुट्टी से कुछ किलोमीटर पहले हम एक
ऐसी जगह पहुंच जहां चारों तरफ छोटे छोटे रंग बिरंगे फूल खिले थे। हम अचानक
ही एक फूलों की घाटी में थे।
फूलों की घाटी
  

उस
जगह की खूबसूरती को शब्दो में नही बताया जा सकता। लेख के साथ लगे फोटो को
देखकर आपको शायद कुछ अंदाजा मिले। फूलों की घाटी में कुछ देर बैठकर उसकी
खूबसूरती को कैमरे के साथ ही आंखो में कैद कर मैं आगे बढा। शाम होने से
पहले ही हम कु्ट्टी पहुंच गये । कुट्टी पहुंच कर क्या किया इसकी जानकारी
अगले लेख में …

 

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